महिलाओं के अधिकारों पर सुप्रीम कोर्ट का बडा फैसला, हर उम्र की महिलाओं का सबरिमाला में होगा प्रवेश
देश के सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर से अपने एतिहासिक फैसले के जरिए महिलाओं के अधिकारों को बुलंद किया है। शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले से केरल के सबरिमाला स्थित प्रसिद्ध अय्यप्पा मंदिर के दरवाजे हर उम्र की महिलाओं के लिए खोल दिए हैं। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय पीठ ने 4:1 के बहुमत के फैसले में कहा कि मंदिर में महिलाओं को प्रवेश से रोकना लैंगिक आधार पर भेदभाव है और यह परिपाटी हिन्दू महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन करती है।
न्यायमूर्ति आर. एफ. नरीमन और न्यायमूर्ति डी. वाई. चन्द्रचूड़ ने प्रधान न्यायाधीश तथा न्यायमूर्ति ए. एम.खानविलकर के फैसले से सहमति व्यक्त की जबकि न्यायमूर्ति इन्दु मल्होत्रा का फैसला बहुमत के विपरीत है। पीठ ने अपने फैसले में कहा कि भक्ति में भेदभाव नहीं किया जा सकता है और पितृसत्तात्मक धारणा को आस्था में समानता के साथ खिलवाड़ करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि 10 से 50 साल उम्र वर्ग की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश से प्रतिबंधित करने की परिपाटी को आवश्यक धार्मिक परंपरा नहीं माना जा सकता और ये महिलाओं को शारीरिक/जैविक प्रक्रिया के आधार पर अधिकारों से वंचित करता है। अदालत ने कहा कि शबरिमला मंदिर की परिपाटी का संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 समर्थन नहीं करते हैं । अदालत ने कहा कि महिलाओं को पूजा करने के अधिकार से वंचित करने में धर्म को ढाल की तरह इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है और यह मानवीय गरिमा के विरूद्ध है।
केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्री के साथ ही महिला आयोग ने भी फैसले का स्वागत किया है ।
केरल के देवस्वओम मंत्री ने फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि फैसले को लागू करना और भगवान अय्यप्पा के मंदिर में आने वाली महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करना त्रावणकोर देवस्वओम बोर्ड की जिम्मेदारी है। वहीं त्रावणकोर देवस्वओम बोर्ड ने भी कोर्ट के फैसले को स्वीकार किया है ।
केरल के लोगों ने भी फैसले का स्वागत किया है।
शबरिमला मंदिर में धार्मिक मान्यताओं के आधार पर 10 साल से 50 साल की उम्र की लडकियों और महिलाओं का प्रवेश वर्जित था। इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन ने इस पाबंदी को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी। याचिका में ये कहा गया था कि ये प्रथा लैंगिक आधार पर भेदभाव करती है। अब सुप्रीम कोर्ट ने फैसले से समानता के अधिकार की पुष्टि हुई है और सभी महिलाओं के मंदिर में जाने का रास्ता साफ हो गया है ।
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